मदरसे की बुनियाद, क्षेत्रीय स्थिति और कुछ प्रस्तुतीकरण
जिस माहौल और हालात के घेरे में इस मदरसे की बुनियाद रखी गई, उसमें अज्ञानता और अंधकार के जहरीले वातावरण ने प्रतापगढ़ और आसपास के क्षेत्रों को इतना प्रभावित कर रखा था कि गाँव और देहात ही नहीं, कस्बे और शहर भी इस्लामी ज्ञान की खुशबू से महरूम थे। विद्वानों और हाफिज़ों की कमी हर ओर स्पष्ट थी, अज्ञानता और अस्थिरता का बोलबाला था, बेहतर जीवन, परलोक की तैयारी और कल्याण के साधनों से लोग अनजान थे। आलिम और हाफिज़ों की इतनी कमी थी कि कभी-कभी जनाज़े की नमाज़ पढ़ाने के लिए भी कोई मुश्किल से मिलता।
इन हालात को देखकर उस समय के कुछ सम्मानित बुजुर्गों के दिलों में इस्लामी जोश और जज़्बा जागा और उनकी धार्मिक हमीयत ने उन्हें प्रेरित किया कि इस्लामी ज्ञान के बुझते चिराग को फिर से रोशन किया जाए। उन बुजुर्गों में सबसे अग्रणी मुसलेह-ए-मिल्लत हज़रत मौलाना मोहम्मद यार साहब प्रतापगढ़ी थे। आप शेख़-उल-इस्लाम हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी के ख़ास शागिर्द और उनके खलीफा थे। आपने न केवल इस मदरसे की स्थापना की बल्कि क्षेत्र में कई अन्य मकातिब और मदरसों का भी जाल बिछाकर धार्मिक और सुधारात्मक क्रांति ला दी।
मुसलेह-ए-मिल्लत हज़रत मौलाना मोहम्मद यार साहब ने अपने पीर-ओ-मुर्शिद, शेख़-उल-इस्लाम हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी के निर्देश पर 1952 ई. में प्रतापगढ़ की कचहरी मस्जिद में ‘जामिया रशीदिया’ की नींव रखी। कुछ समय तक वहीं शिक्षा का सिलसिला जारी रहा। फिर एक रात हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी हज़रत मुसलेह-ए-मिल्लत के ख्वाब में तशरीफ लाए और हुक्म दिया कि “मोहम्मद यार! मदरसे को अपने क्षेत्र में ले जाओ।” इस इशारे पर अमल करते हुए हज़रत ने इसे नागापुर स्थानांतरित किया, और फिर वहां से अपने गाँव के क़रीब स्थानांतरित किया।
मदरसे की शुरुआती हालत बहुत कठिन थी। आर्थिक तंगी के कारण हज़रत की धर्मपत्नी और क़ाज़ी साहब की माताजी खुद गेहूं पीसकर और रोटियां बनाकर छात्रों को खिलातीं। अनाथ और गरीब छात्रों की देखभाल खुद करतीं, उनके कपड़े धोतीं और उनकी ज़रूरतों का ध्यान रखतीं। बाद में अल्लाह की मदद से मदरसे ने तरक्की की, और क़ाज़ी-ए-शरीअत हज़रत मौलाना मोहम्मद अमीन साहब की निगरानी में मदरसे के निर्माण में विस्तार हुआ। मौलाना मुफ्ती मोहम्मद फैसल साहब की कोशिशों से मदरसे की दो अलग-अलग दो मंजिला इमारतें बनवाई गईं और मस्जिद का भी विस्तार किया गया।
मदरसे का नाम ‘मदरसा रशीदिया’ रखा गया, और आगे चलकर इसे ‘जामिया रशीदिया’ के नाम से जाना गया, जो क़ुत्ब-उल-इर्शाद, इमाम-ए-रब्बानी, हज़रत मौलाना रशीद अहमद गंगोही की ओर मंसूब है। यह मदरसा शुरू से अब तक पूरी तरह निःस्वार्थ और अल्लाह की रज़ा के लिए धार्मिक सेवाएं अंजाम दे रहा है।
आज, इस मदरसे से हजारों छात्र और छात्राएं नबी की शिक्षाओं से लाभान्वित होकर देश और विदेश में धार्मिक, नैतिक और सुधारात्मक सेवाएं अंजाम दे रहे हैं। इस मदरसे में प्राथमिक स्तर से लेकर तफ़सीर, हदीस, अरबी, और हिफ्ज़-ए-क़ुरआन तक शिक्षा दी जाती है।
मदरसे में अंग्रेजी और उर्दू माध्यम में आठवीं कक्षा तक शिक्षा की व्यवस्था है, जिसकी डिग्री भारत सरकार से मान्यता प्राप्त है। अरबी कक्षाओं में लड़कों के लिए अव्वल अरबी, दोम अरबी, और सोम अरबी तक शिक्षा दी जाती है, जिसमें छात्रों की अरबी भाषा और पाठ्य पुस्तकों पर विशेष ध्यान दिया जाता है।